The Raslila in Krishna Bhakti Poetry
कृष्णभक्ति काव्य में रासलीला
DOI:
https://doi.org/10.53573/rhimrj.2024.v11n8.005Keywords:
Shrimad Bhagwat Purana, Raslila, Purana, Bhakti Poetry, ArtAbstract
The Raslila holds a special significance in Krishna Bhakti poetry. The Shrimad Bhagwat Mahapurana consists of twelve cantos, eighteen thousand verses, and 335 chapters. The Bhagwat is considered the literary form of the divine, with the twelve cantos symbolizing the various parts of the divine body. Among these, the tenth canto is regarded as the heart of the divine. Within the tenth canto, chapters 29 to 33 are collectively known as the Ras Panchadhyayi, which narrate the blissful Raslila of Lord Krishna with Raseshwari. The essence of the Ras Panchadhyayi lies in the name of Shri Radha, considered supremely confidential. The five chapters are deemed the life force of the Maharas. Shukdevji also assigned twelve names to each canto, reflecting both the speaker's persona and the essence of the events described. Similarly, the twelve cantos are collectively referred to as Dwadasharanya (the twelve forests), with each forest narrating blissful divine pastimes. The tenth canto is termed the Paramatmaranya (the supreme forest of the divine), and within it, the Ras Panchadhyayi is regarded as the Swarooparanya (the essential forest). Over time, much like the Ramayana, the enactment of Raslila allowed the masses to directly experience devotion and faith by participating in it. Additionally, its portrayal evolved through various art forms.
Abstract in Hindi Language: कृष्णभक्ति काव्य में रासलीला का विशेष महत्व है। श्रीमद्भागवत महापुराण में बारह स्कंध, अठारह हजार श्लोक, और 335 अध्याय हैं। भागवत भगवान की वाङ्मयी मूर्ति कहलाती है तथा बारह स्कंधों की अंग-प्रत्यंग की कल्पना की गई है। भागवत के बारह स्कंध भगवान के बारह अंग माने जाते हैं। इनमें भी दशम स्कंध को भगवान का हृदय कहा गया है। इसमें दशम स्कंध पूर्वार्ध के अध्याय 29 से 33 तक पाँच अध्याय रास पंचाध्यायी कहलाते हैं, जिसमें भगवान की रास रासेश्वरी की रसपूर्ण लीला का वर्णन है। रास पंचाध्यायी का भी सार श्रीराधा जी का नाम है, जिसे परम गोपनीय माना गया है। पाँचों अध्याय महारास के प्राण रूप माने जाते हैं। शुकदेव जी के भी प्रत्येक स्कंध के अनुसार बारह नाम हैं। इन नामों से वक्ता का स्वरूप तथा सभी प्रसंगों का स्वरूप दीखता है। इसी प्रकार बारह स्कंधों को स्वरूपानुसार द्वादशारण्य कहा गया है। सभी अरण्यों में उनके नामानुसार आनंदमयी लीलाओं का वर्णन किया गया है। दशम स्कंध को परमात्मारण्य कहा गया है। इसमें भी रास पंचाध्यायी को स्वरूपारण्य कहा गया है। आगे चलकर रामायण की तरह रासलीला के अनुकरण द्वारा जनसाधारण भक्ति और श्रद्धा का प्रत्यक्ष अनुभव करने के लिए उसमें भाग लेने लगा। साथ ही, इसके स्वरूप का विभिन्न कला माध्यमों द्वारा विकास होता गया।
Keywords: श्रीमद्भागवत पुराण, रासलीला, पुराण, भक्ति काव्य, कला।
References
मीत्तल प्रभुदयाल, ब्रज की रासलीला, वृन्दावन शोध संस्थान, 2011, पृ.2
वहीं पृ.3
भागवत पुराण व हरिवंष पुराण (विष्णुपर्व, अध्याय 20 ) में रास का आयोजन शरत्पूर्णिमा को होता है। गर्ग संहिता (वृन्दावनखण्ड अध्याय 19 ) में
रास का आयोजन माधव मास (वैषख) की कृष्णपक्ष की पंचमी को होता है। गीतगोविन्द (जयदेव) का रास बसंत रास है।
एक महीने तक मार्गषीर्ष में ब्रज की कुमारियों ने जो कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत किया। उसी का फल महारासा के रूप में ब्रज गोपियों को
प्राप्त हुआ। ‘‘जा फल कौं ब्रजनारि कियौ व्रत, सो फल सबहिनि दीन्हौ। मनकामना भई परिपूरन, सबहिनि मानि जु लीन्हौ।। वाजपेयी नंददुलारे,
सूरसागर खण्ड-1, नागरीप्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 1976, पृ. 654
सूरसागर में यह प्रसंग विषेष रूप से राधा के लिए आया है। नृत्य के कारण राधा थक जाती है, जिससे वह कृष्ण के कंधों पर सवार होने के लिए
कहती है। ‘‘कहै भामिनी कंत सौं, मोहिं कंध चढ़ावहु। नृत्य करत अति स्रम भयो, ता स्रमहिं मिटावहु।।‘‘ वाजपेयी नंददुलारे, सूरसागर खण्ड-1,
नागरीप्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 1976, पृ. 640
तब हरि भए अंतरधान। जब कियौ मन गर्ब प्यारी, कौन मोसी आन। वाजपेयी नंददुलारे, सूरसागर खण्ड-1, नागरीप्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम
संस्करण 1976, पृ. 640
भागवत पुराण, दषम स्कन्ध(पूर्वाध), अध्याय-29, गीताप्रेस गोरखपुर, पृ.299 से 307
वहीं पृ308 से 314
वहीं पृ.315 से 318
वहीं पृ.319से 322
मोहन रच्यौ अदभुत रास। संग मिलि वृषभानु-तनया, गोपिका चहुँ पाउ। वाजपेयी नंददुलारे, सूरसागर खण्ड-1, नागरीप्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम
संस्करण 1976, पृ. 649
भागवत पुराण, दषम स्कन्ध(पूर्वाध), अध्याय-33, गीताप्रेस गोरखपुर, पृ. 323
ब्रह्मवैवर्तपुराण के कृष्णजन्मखण्ड के अध्याय 28 व 52,53, गीताप्रेस गोरखपुर, पृ. 566, 567, 627,628
हिन्दी साहित्य कोष, भाग 2, संपादक, डाॅ. वर्मा धीरेन्द्र, द्वितीय संस्करण 2015, पृ.533
व्यास रघुवरदयालु, रास पंचाध्यायी रसवर्द्धनी, पुरूषोत्तम ज्योतिष कार्यालय मथुरा, पृ.8
प्रभुदयाल मित्तल, ब्रज की रासलीला, वृन्दावन शोध संस्थान, वृन्दावन, 2011,पृ. 2
हिन्दी साहित्य कोष, भाग 2, संपादक, डाॅ. वर्मा धीरेन्द्र, द्वितीय संस्करण 2015, पृ.533
प्रभुदयाल मित्तल, ब्रज की रासलीला, वृन्दावन षोध संस्थान, वृन्दावन, 2011,पृ. 10
वाजपेयी नंददुलारे, सूरसागर खण्ड-1, नागरीप्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 1976, पृ. 493 से 495
वहीं पृ. 617
वहीं, पृ. 629
वहीं, पृ. 636
वहीं पृ. 648
वहीं पृ. 649
द्ववेदी हजारीप्रसाद, हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाषन, 9 वां संस्करण 2011, पृ. 131
द्विवेदी हजारीप्रसाद, सूर-साहित्य, राजकमल प्रकाषन, आठवाँ संस्करण, 2017, पृ. 74
वहीं पृ. 77
द्विवेदी हजारीप्रसाद, हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाषन, 9 वां संस्करण, 2011, पृ. 105
प्रभुदयाल मित्तल, ब्रज की रासलीला, वृन्दावन षोध संस्थान, वृन्दावन, 2011,पृ. 8